Friday, July 8, 2016

शान्ति की खोज में

मैं शोर से आक्रान्त हूं
इसलिए मैं भागता हूं, हर जगह से
पर मैं पलायनवादी नहीं हूं
इसलिए मैं भटकता हूं
शान्ति की खोज में।

मैंने सुनी–
फूलों से भरी, लताओं से घिरी,
अकेली डगर की कराहǃ
पता नहीं कब तक चलना है;
कहां है मेरी सीमा।

मैंने पहचाना
वो गहरा दर्द
जो छ्पिा था
कल–कल करती नदी के गीत में।
मैंने देखी–
वो नीरसता,
जो छ्पिा रखी थी आकाश ने
नीरवता के आवरण में।
हवा की सरसराहट ने सुनायी,
अपनी शाश्वत कहानी
मार्ग के लिए संघर्ष की।
मैंने सुना,
तरूओं का शोर–
हमें आश्रय दो, आज तक हमने सबको आश्रय दिया,
हमें आश्रय दो।


मैं अशान्त हो उठा।
पर मैं सतयुगी ऋषि नहीं,
जो हिमालय की कन्दरा में धूनी रमा लेता,
मैं कलि का वंशज हूं।
मैं कमरे में छुप गया।
पर मैंने अनुभव किया
एक भयानक शोर
जो आ रहा था मेरे अन्दर से
मैं फिर भागा और भागता गया
दुनिया से दूर
ऐसी जगह की खोज में
जहां शान्ति हो।

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