Friday, August 13, 2021

भीमबंध के जंगलों में

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सुबह के 8.30 बजे मैं भागलपुर से सुल्तानगंज की ओर चल पड़ा। इसी रास्ते पर भागलपुर के पास ही,नाथनगर में एक जैन मंदिर के बारे में पता चला था। लेकिन यह मंदिर किस गली में था,मैं नहीं ढूँढ़ पाया। कई लोगों से पूछने के बाद भी इसका सही पता नहीं लग पाया। अधिक समय नष्ट करना भी मुनासिब नहीं था। अगले एक घण्टे में मैं सुल्तानगंज के गंगा घाट पर था। रास्ते में अत्यधिक ट्रैफिक मिला। सुल्तानगंज का नाम मैंने बहुत सुन रखा था। मेरे गाँव के मित्र यहीं से काँवड़ लेकर देवघर स्थित बाबा वैद्यनाथ धाम तक की लगभग 104 किलोमीटर की पैदल यात्रा करते रहे हैं। मेरे साथ ऐसा दुर्भाग्य रहा कि मैं एक बार भी काँवड़ न ले जा सका। सुल्तानगंज के घाट पर अजगैबीनाथ के नाम से भगवान शिव का विशाल मंदिर बना हुआ है। सुल्तानगंज बिहार के भागलपुर जिले में ही पड़ता है। मैंने शरीर पर गंगाजल छ्डि़क कर शुद्धिकरण किया,अजगैबीनाथ के दर्शन किये और फिर घाट पर आकर ʺमड़ईʺ में बनी दुकानों में से एक में बिछी चौकी पर आसन जमा लिया। किसी भी परिस्थिति में एड्जस्ट कर लेना हम यूपी–बिहार वालों के स्वभाव में शामिल है। अब गंगा किनारे दुकान खोलनी है तो फाइव स्टोर होटल में थोड़े न खुलेगी। क्या पता गंगा मइया कब नाराज हों और होटल को अपने साथ बहा ले जायं। तो झोपड़ी वाली दुकान बेस्ट है। प्राकृतिक परिवेश में मकान और दुकान सब–कुछ प्राकृतिक हो तो उसका मजा ही कुछ और होता है। दुकान में गरम–गरम पकौड़ियाँ छन रही थीं और सामने नदी में एक स्टीमर दौड़ लगा रहा था। भीड़–भाड़ का सीजन न होने के बावजूद लोगों की काफी संख्या थी। मैंने भी चाय–पकाैड़ी का भोग लगाया। पता नहीं,बाढ़ के दिनों में यहाँ क्या होता होगाǃ शायद उसके लिए ʺभयंकरʺ शब्द का इस्तेमाल किया जा सकता है,लेकिन  कुछ देर माँ गंगा के दर्शन करने के बाद मैं अपने अगले लक्ष्‍य मुंगेर की ओर चल पड़ा। सूत्रों से पता चला था कि मुंगेर में भी मेरे लायक कई चीजें हैं। सो मैं ʺकिला फतहʺ करने की इच्छा से सीधे मुंगेर फोर्ट पहुँचा।

पूछते–पूछते मुंगेर किले तक पहुँचा तो किले का गेट दिखा। मैं किले के अन्दर प्रवेश कर गया लेकिन गेट के बाद कम से कम मुझे किले जैसा कुछ दिखायी नहीं पड़ा। लगा कि किला गेट पर ही शुरू हुआ और गेट पर ही खत्म हो गया। मेरे लिए किले का मतलब होता है ऊँची चारदीवारी,बड़े–बड़े गेट,कुछ इमारतों के खण्डहर वगैरह–वगैरह। लेकिन यहाँ मुझे ऐसा कुछ नहीं दिखा। तथाकथित किले के भीतर गुजरने वाली सड़कों पर मैं बाइक दौड़ाता रहा। वहाँ दिखने वाले लोगों और दुकानदारों से पूछताछ भी की लेकिन किसी दर्शनीय स्थल के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल सकी। कुछ ने कम्पनी गार्डन का नाम लिया। एकमात्र काेई महत्वपूर्ण चीज जो मेरे देखने लायक थी तो वो थी– ʺबिहार स्कूल ऑफ योगा।ʺ दुर्भाग्य से मैं जिस समय वहाँ पहुँचा,यह बन्द था। इसकी चारदीवारी ही देखने को मिल सकी। वैसे इस किले या फिर मुंगेर शहर में,जो सबसे सुंदर चीज मुझे दिखी वो ये कि इसे गंगा ने तीन तरफ से घेर रखा है। नदी के किनारे खड़े किले से नदी का नजारा काफी खूबसूरत दिखता है।

कुछ ही देर में मैंने मान लिया कि मेरी मुंगेर यात्रा पूरी हो गयी। समोसे और कोल्ड ड्रिंक का नाश्ता कर मैं मुंगेर शहर से बाहर निकल पड़ा। अब मेरी यात्रा शहरों से दूर गाँवों या फिर जंगलों में होनी थी। आज की मेरी रात कहाँ गुजरेगी,मुझे इसका बिल्कुल भी अनुमान नहीं था। मुंगेर से सुल्तानगंज की ओर जाने वाली सड़क पर कुछ दूर चलने के बाद रास्ता पूछकर मैं एक बिल्कुल ही अनजानी लिंक रोड पर मुड़ गया। अब मैं जा रहा था ऋषिकुण्ड के गर्म जल स्रोत की ओर। मुंगेर से इसकी दूरी 18-20 किलोमीटर है। मुंगेर से इसकी दूरी अधिक नहीं है लेकिन सड़क बिल्कुल अनजानी सी लगती है। जब मैं इधर चला तो पूरी दोपहरी हो चुकी थी। सूरज सिर पर था। बिल्कुल सूखी धरती जल रही थी और सड़क किनारे दिखने वाले लोगों की संख्या भी कम होती जा रही थी। पूरे रास्ते में सड़क किनारे एक–दो छोटी–छोटी बस्तियाँ दिखीं। कुछ देर बाद जब मैं ऋषिकुण्ड पहुँचा तो बिल्कुल अकेले में पहाड़ियों की तलहटी में एक छोटा सा तालाब दिखायी पड़ा जिसमें 3-4 स्थानीय लोग नहा रहे थे। ये पहाड़ियाँ खड़गपुर की पहाड़ियों के नाम से जानी जाती हैं जो यहाँ से लेकर जमुई के पास तक फैली हुई हैं। पास ही झोपड़ियों में कुछ दुकानें थीं जिनमें से एक में जलेबियाँ छन रही थीं। पास ही एक मंदिर बना हुआ है जिसके चबूतरे पर दो साधु महाराज बिल्कुल चुपचाप बैठे हुए थे। मैं भी बाइक खड़ी कर कुण्ड के किनारे पहुँचा। पानी में हाथ लगाया तो यह बहुत गर्म था। पता नहीं कैसे अप्रैल की गर्मी में इस गर्म पानी में लोग नहा रहे थे। संभवतः सामने दिख रही पहाड़ियों में इस गर्म जल का स्रोत होगा। यदि यह मानसून या जाड़े का समय होता तो यहाँ का नजारा बहुत खूबसूरत होता। लेकिन इस समय तो सब कुछ सूखा–सूखा ही दिख रहा था। कुण्ड के चारों ओर पक्के घाट बने हुए हैं। मैंने कुण्ड के जल से आचमन किया और जलेबी की दुकान में चला आया। दुकानदार से बातें होने लगीं। पता चला कि यहाँ हिन्दू संवत्सर के अनुसार पड़ने वाले मलमास या अधिकमास में बहुत बड़ा मेला लगता है। जाड़े में भी लोग–बाग यहाँ घूमने आते हैं। वैसे यहाँ सुविधाएँ होतीं तो यह बहुत अच्छा पिकनिक स्पॉट होता।

दुकानदार द्वारा प्यार से खिलाई गयी दो जलेबियाँ खाने के बाद मैं वापस लौट पड़ा। पेट और मन दोनों संतृप्त हो चुके थे। मुख्य सड़क पर आने के बाद मैं मुंगेर से जमुई की ओर जाने वाली सड़क पर मुड़ गया। आज का मेरा लक्ष्‍य यह सड़क ही थी क्योंकि यह भीमबंध के जंगलों के बीच से होकर गुजरती है। वैसे ऋषिकुण्ड से लेकर जमुई तक अधिकांश क्षेत्र भीमबंध वन्यजीव अभयारण्य के अन्तर्गत ही आता है। आज मैं इसी जंगल में मंगल मनाने की सोच रहा था। वैसे अभी असली जंगल में घुसने से पहले मुझे एक और जगह देखनी थी। इसी सड़क पर मुंगेर से 35 किलोमीटर की दूरी पर खड़गपुर नामक स्थान है। यहाँ से मुख्य सड़क छोड़कर दाहिनी तरफ 3-4 किलाेमीटर अंदर खड़गपुर झील है जाे देखने लायक है। मेरे पास बाइक थी तो इन जगहों पर जाना संभव हो पा रहा था अन्यथा यह असंभव नहीं तो बहुत मुश्किल होता। मैं गूगल मैप के सहारे झील की तलाश में चलता गया। लेकिन एक स्थान के बाद मैप ने साथ देना बंद कर दिया। मैंने स्थानीय लोगों से पूछने की कोशिश की। पता चला कि झील तो पास में ही है लेकिन रास्ते पर गिट्टी पड़ी हुई है। एक व्यक्ति ने दूसरा रास्ता बताया। ऐसे ही कच्चे–पक्के,गिट्टी पड़े रास्ते पर मेरी बाइक धीमी गति के बुलेटिन की तरह चलती रही। झील तक पहुँचने से पहले एक गाँव भी मिला। गाँव क्या था,छोटे–छोटे कच्चे–पक्के 10-12 घरों का पुरवा था। अगले कुछ मिनटों में मैं बिल्कुल निर्जन स्थान पर झील के किनारे था। झील के किनारे भी मैंने कच्चे रास्ते पर बाइक दौड़ाने की कोशिश की लेकिन झील में आकर मिलती पतली धाराओं ने एक स्थान पर मुझे रोक दिया। कीचड़ अधिक था। मैं झील के एक छोर पर था। सामने दूसरे छोर पर दूर कुछ मानव बसाव दिखायी पड़ रहे थे। संभवतः वहाँ एक पुल जैसी संरचना भी दिखायी पड़ रही थी। वैसे झील के उस पार दूर तक सुन्दर नजारा दिखायी पड़ रहा था। कहते हैं कि मुंगेर जिले की खड़गपुर झील बिहार का नैनीताल है। मैंने झील के कुछ फोटो खींचे और वापस लौट पड़ा।

कुछ देर में मैं फिर से मुख्य सड़क पर था और जमुई की ओर चल पड़ा। खड़गपुर से लगभग 10 किलाेमीटर चलने के बाद जंगल शुरू हो गया जो आगे क्रमशः घना होता जा रहा था। इसके साथ ही सड़क भी दुबली हो गयी। अब यह दो लेन से एक लेन में बदल चुकी थी। सड़क और जंगल का यह सम्बन्ध मेरी समझ में नहीं आया। कुछ किलोमीटर आगे सड़क के बायें किनारे एक छोटा सा मन्दिर दिखा जैसे कि अक्सर हमारे गाँवों में दिखता है– ʺसवा लाख बाबा।ʺ मैं सोचने लगा,इस निर्जन में सवा लाख बाबा की पूजा कौन करता होगा। हो सकता है जंगल के बाशिंदे– आदिवासी इनकी देख–रेख करते होंगे। वैसे मंदिर का नाम भी कम रोचक नहीं है। इसी के पास से सड़क की दाहिनी तरफ एक कच्चा रास्ता जंगल में समा जाता है। रास्ते पर वन विभाग का बैरियर और कुछ संकेतक भी लगे हुए हैं। जंगल के अन्दर 10 किलोमीटर की दूरी पर किसी पर्यटक स्थल की सूचना भी किसी बोर्ड पर मुझे दिखी। बस नहीं दिखा तो कोई आदमी जिससे इस रास्ते के बारे में पूछा जा सके। मैंने अधिक कुछ सोचने की जहमत नहीं उठायी और जंगल के अंदर की ओर बाइक मुड़ा दी। मेरी किस्मत से यदि कोई आदमी मिल जाता और जंगल की सच्चाई मुझे मालूम हो जाती तो शायद मैं आगे नहीं जाता। फिर भी लौट कर आने के बाद तो मुझे इसकी सच्चाई मालूम हो ही गयी।

सूखा मौसम और सूखा जंगल। बड़ी दूरी तक आग लगने के निशान भी दिखायी पड़ रहे थे। मैं ज्यों–ज्यों आगे बढ़ता गया,रोमांच बढ़ता जा रहा था। वैसे मेरी आँखें बार–बार किसी ऐसे आदमी की तलाश कर कर रही थीं जिससे कुछ पूछा जा सके। लेकिन ऐसा कोई आदमी न मिलना था,न मिला। 4-5 किलोमीटर चलने के बाद तो मेरे मन में कुछ डर सा लगने लगा जिसे अगले ही पल मैंने कन्धे उचकाकर दूर भगा दिया। वैसे बात थोड़ी सी चिन्ता की अवश्य थी। आखिर यह कौन सा पर्यटन स्थल है जहाँ जाने वाला या वहाँ से आने वाला एक भी शख्स नहीं दिखा। थोड़ा सा आगे एक तरफ 200-300 मीटर की दूरी पर एक बूढ़ी औरत खड़ी दिखायी दी। मैंने सोचा इसी से आगे के रास्ते के बारे में पता करते हैं,लेकिन वह बिल्कुल एक ही स्थिति में बिना हिले–डुले इस तरह खड़ी थी कि मेरी तो हिम्मत ही जवाब दे गयी। मैंने बाइक की स्पीड कुछ बढ़ा दी। वैसे इस रास्ते पर बहुत अधिक तेज गाड़ी चलाना भी मुमकिन नहीं था। रास्ता ऊबड़–खाबड़,काफी मोड़ लेते हुए जा रहा था। असमंजस में ही 2-3 किलोमीटर और बीत गये। जंगल कुछ कम घना हो रहा था। कहीं से कुत्तों के भौंकने की आवाजें आ रही थीं। मुझे कुछ उम्मीद जगी। तभी एक तरफ 4-5 की संख्या में बच्चे दिखे। ये तीर–कमान से पेड़ों पर बैठे पक्षियों पर निशाना लगा रहे थे। ये वे तीर–कमान नहीं थे जिन्हें लेकर हम बचपन में राम–रावण युद्ध खेला करते थे। वरन ये असली वाले तीर–कमान थे जिनसे पक्षियों का शिकार किया जाता है। मेरे मन में डर के साथ रोमांच उत्पन्न हुआ। मैंने बाइक रोककर उन्हें बुलाया। ये जंगल में रहने वाले आदिवासियों के बच्चे थे। इन्हें देखकर इतना तो लग ही रहा था कि आधुनिक दुनिया से इनका अभी कोई खास मतलब नहीं है। मैंने बच्चों से आगे के रास्ते के बारे में जानने की कोशिश की लेकिन कुछ खास जानकारी नहीं मिल सकी। मैंने उन बच्चों की,उनके तीर–कमान के साथ फोटो खींचने की कोशिश की लेकिन वो भाग निकले। मैं हार मानकर आगे बढ़ लिया।

लगभग 10 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद मुझे अपने जैसे मनुष्यों के कुछ चिह्न मिले। लेकिन उन्हें भी देखकर मन में डर समा गया।  जंगल के बीच में तारों से घिरा हुआ अर्द्धसैनिक बलों का कैम्प था जिसे देखकर मेरी धड़कन बढ़ गयी। मैं ये कहाँ आ पहुँचा थाǃ दो–तीन जवान अपने हथियारों के साथ पहरा दे रहे थे। एक जवान बंकर जैसी बनी अपनी पोस्ट में तैनात था। उन्होंने मुझे रूकने का इशारा किया। मेरा कलेजा धाड़–धाड़ कर रहा था। मैं बाइक से उतरकर उनके पास गया।

ʺइधर कहाँ जा रहे हैं?ʺ

ʺआगे कोई गर्मजल का कुण्ड है वहीं घूमने जा रहे हैं।ʺ

ʺये भी कोई घूमने का जगह है क्या? कहाँ से आ रहे हैं?ʺ

मैंने धैर्यपूर्वक अपना पूरा परिचय दिया,सरकारी भी और प्राइवेट भी। आई कार्ड की माँग हुई। मैंने सब दिखाया मसलन– आधार,डी. एल.,वोटर कार्ड।

ʺसीधा यही रास्ता पकड़े चले जाइये। एक किलाेमीटर की दूरी पर कुण्ड है। लेकिन रूकना नहीं है और देर भी नहीं करनी है। अँधेरा होने से पहले जंगल से बाहर निकल जाइयेगा। यहाँ किसको पता है कि आप टूरिस्ट हैं। कहीं संदेह हो गया तो..........?ʺ

मैंने अपनी शंका जाहिर की– ʺनक्सली इलाका है क्या सर ये?ʺ

ʺऔर का समझ रहे हैं? ससुराल में आये हैं क्या?ʺ

अब तो मेरा सारा खून पानी बन चुका था। बुरे फँसेǃ हिम्मत करके बाइक आगे बढ़ाई। हाथ काँप रहे थे। मन में तरह–तरह की शंकाएं काले बादलों की तरह से उमड़–घुमड़ रही थीं। रास्ते में 10-15 झोपड़ियों का आदिवासियों का एक गाँव मिला। जब मैं यहाँ से गुजरा तो सारे मुझे ही देख रहे थे। मैं भी उन्हें ही देख रहा था लेकिन रास्ता पूछने की हिम्मत नहीं हुई। थोड़ा सा आगे लकड़ी काट रहे एक अकेले आदमी से हिम्मत करके रास्ता पूछा। जल्दी ही तथाकथित गर्म कुण्ड तक पहुँच गया। मन में थोड़ी हिम्मत बढ़ी। बाइक से उतरकर फोटो खींची और पानी में हाथ डालकर उसकी गर्माहट का अनुभव किया। फिर उल्टे पाँव वापस लौटा।

सुरक्षा बलों के कैम्प तक पहुँचा तो मुझे फिर रोक गया। पता नहीं अब कौन सी आफत आने वाली थी। पर हल्की सी पूछताछ और जंगल से जल्दी बाहर निकल जाने की हिदायत देने के बाद मुझे छोड़ दिया गया। जब तक मैं सुरक्षा बलों के पास था तब तक तो हिम्मत बनी हुई थी लेकिन जब वहाँ से वापस लौटा तो धड़कन बढ़ गयी। उन्हीं में से एक भलेमानुस ने मुझे दूसरा रास्ता बताने की कोशिश भी की। लेकिन पहले वाले रास्ते से मैं थोड़ा–बहुत परिचित हो चुका था और नये अंजान रास्ते पर जाने का रिस्क उठाने की हिम्मत मेरे अंदर नहीं थी। अब मैं सिर्फ एक ही बात साेच रहा था कि आगे दस किलोमीटर की दूरी तय करनी है और बिल्कुल अकेले। कोई मिलने वाला नहीं। वैसे मैं ईश्वर से यही प्रार्थना कर रहा था कि रास्ते में कोई न मिले। यहाँ आते समय कुछ पता नहीं था तो डर भी कम था लेकिन अब तो मुँह में केवल राम–नाम ही था। मैंने बाइक की स्पीड जितना भी अधिक हो सकता था,बढ़ा रखी थी। सीधी सड़क होती तो यह 10 किलोमीटर की दूरी कुछ भी नहीं थी लेकिन कच्चे और ऊबड़–खाबड़ व अन्धे मोड़ों वाले रास्ते पर ऐसी खतरनाक परिस्थिति में किसी आदमी की क्या मनोदशा हो सकती है,इसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता।

अगर आँखें बन्द करके बाइक चलाना संभव होता तो मैं आँखें बन्द कर लेता। क्योंकि जंगल की ओर देखने की मेरी बिल्कुल भी हिम्मत नहीं कर रही थी। जंगल वैसे तो बिल्कुल शांत था,फिर भी यदि कोई आवाज आती तो बाइक के इंजन के शोर में दब जाती। मैं चक्षुस्रवा हो रहा था। मनुष्य के धैर्य की परीक्षा ऐसी ही परिस्थितियों में होती है। वैसे तो इसके पहले भी मैं कई जंगलों में घूम चुका हूँ,लेकिन ऐसी मनोदशा का अनुभव पहली बार हो रहा था। उत्तराखण्ड और हिमाचल में तो ऐसी कोई बात मन में आती ही नहीं है। राजस्थान के सरिस्का टाइगर रिजर्व में मैंने जाने और आने में लगभग 50-55 किलोमीटर बाइक चलाई थी और अभी इसी यात्रा में वाल्मीकि टाइगर रिजर्व भी घूम चुका हूँ। लेकिन जंगल डराता भी है,इसका अनुभव पहली बार हो रहा था।

खैर,किसी तरह 10 किलोमीटर की दूरी तय हुई और पक्की सड़क से मुलाकात हुई। वैसे पक्की सड़क पर भी कुछ किलोमीटर तक जंगल ने बखूबी साथ दिया। फिर भी धीरे–धीरे इसका घनापन कम होता जा रहा था। मनुष्यों और मकानों के जंगल से चिढ़कर असली जंगल की तलाश करने वाला मेरे जैसा आदमी अब मनुष्यों के जंगल की ही खोज कर रहा था। लगभग 30-35 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद जमुई में मनुष्यों के बड़े जंगल से मेरी मुलाकात हुई। रात बिताने का ठाैर मिला। अब मेरी यात्रा अन्तिम चरण में थी। अगले दिन,अप्रैल महीने की एक ठण्डी भोर में मैं घर के लिए रवाना हो गया।


सम्बन्धित यात्रा विवरण–



3 comments:

  1. आप बहुत बढ़िया लिखते हैं।प्रणाम आपको।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद संजय जी। वैसे यह पोस्ट जल्दबाजी और व्यस्तता में आधी–अधूरी ही पोस्ट हो गयी। इसे अभी पूरा करना बाकी है।

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