Friday, September 14, 2018

आमेर से नाहरगढ़

इस यात्रा के बारे में शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें–

11.30 बज रहे थे। तेज धूप में आमेर महल की चढ़ाई–उतराई ने शरीर का पानी सोख लिया था। उस जमाने के राजे–महाराजे कैसे महल में आते–जाते होंगे,सो तो वही जाने। शायद छत्र लगाने और हवा करने के लिए भी सेवक लगे रहते थे। पर अपनी किस्मत में यह सब कहाँǃ तो फिर बाहर निकल कर पहले मिल्क शेक के ठेले पर शरीर की जलापूर्ति बहाल की और फिर बाइक लेकर जयगढ़ और नाहरगढ़ के रास्ते पर निकल पड़ा।
आमेर से वापस जयपुर की ओर लगभग 2 किमी चलने पर एक त्रिमुहानी से दाहिने एक सड़क जयगढ़ व नाहरगढ़ की ओर निकलती है।
यह सूचना प्रदान करते हुए बाकायदा एक बोर्ड भी लगा हुआ है। मैं दाहिने मुड़ गया। यह सड़क धीरे–धीरे अरावली की पहाड़ियों की चढ़ाई चढ़ते हुए जाती है– जंगलों के बीच से होते हुए। सुंदर दृश्य है। पेड़ और झड़ियां जितना भी हो सकता था,हरे–भरे हो गये थे। देख कर लगा ही नहीं कि मैं राजस्थान में हूँ। वैसे सड़क पर आने–जाने वाले इक्का–दुक्का ही दिख रहे थे। इस सड़क के किनारे रहने वाला तो कोई नहीं दिख रहा था। अर्थात् यह पहाड़ी आबादी विहीन क्षेत्र है। लगभग 3 किमी चलने के बाद फिर एक त्रिमुहानी से सामना हुआ। पता चला कि दाहिने हाथ वाली सड़क जयगढ़ की ओर चली जाती है और बायें हाथ मुड़ने वाली सड़क नाहरगढ़ की ओर। मुझे लगा कि नाहरगढ़ कुछ अधिक दूरी पर है तो मैं नाहरगढ़ की ओर मुड़ गया। इसमें कुछ अधिक सोच–विचार करने की गुंजाइश नहीं थी। वैसे आगे जाकर पता चला कि उस त्रिमुहानी से नाहरगढ़ किले की दूरी 5 किमी तथा जयगढ़ किले की दूरी 1 किमी है। आगे भी दृश्य लगभग यथावत था सिवाय इसके कि मौसम कुछ ठण्डा प्रतीत हो रहा था। और वो भी इसलिए नहीं कि मैं बहुत ऊँचाई पर आ गया था वरन इसलिए कि बारिश के आसार दिखाई पड़ रहे थे या फिर यूँ कहें कि कुछ दूर आगे बारिश हो रही थी। मैं अपने आपको बहुत ही भाग्यशाली समझ रहा था क्योंकि राजस्थान की बारिश से भी आमना–सामना हो जायेगा।
पहाड़ी की चढ़ाई लगभग खत्म हो गयी थी और अब मैं पहाड़ी के लगभग सपाट शीर्ष पर पर था। यहाँ एक कम चौड़ाई की लेकिन अच्छी सड़क लहराती हुई आगे बढ़ती जा रही थी। और आगे बढ़ा तो हल्की बारिश शुरू हो गयी। एक–दो बाइक सवार पेड़ों के नीचे छ्पिकर बारिश से बचने की कोशिश कर रहे थे। मैं भी थोड़ा आगे बढ़कर एक घने पेड़ की छाँव में खड़ा हो गया। सतर्कतावश मैंने अपना सारा भीगने लायक सामान वाटरप्रूफ पिट्ठू बैग के अन्दर छ्पिाया और बिल्कुल निश्चिन्त होकर खड़ा हो गया। देखते हैं कितना बरसते होǃ एक या दो मिनट में ही मुझे समझ में आ गया कि राजस्थान की धरती का यह काँटेदार प्रजाति का वृक्ष,बारिश के मौसम की वजह से भले ही खूब हरा–भरा हो,धूप या बारिश,किसी भी चीज से मुझे बचाने में अक्षम है। अब इससे बड़ी पत्तियों वाला व घना वृक्ष मुझे दूसरा कोई नहीं दिख रहा था। तो मैं थोड़ा–थोड़ा ही सही,भीगता रहा। थोड़ी ही देर में लगा कि बारिश कुछ धीमी हो रही है तो मैं आगे बढ़ चला। लेकिन बारिश भी मेरी परीक्षा ले रही थी। अचानक ही यह और भी तेज हो गयी। अब मैंने रूकने का विचार त्याग दिया और झमाझम बारिश में ही बाइक दौड़ा दी। लेकिन बारिश की तीव्रता बढ़ती ही जा रही थी। इतनी तेज कि बाइक चलाना मुश्किल होने लगा। थोड़ा ही आगे दाहिने हाथ एक मंदिर दिखायी पड़ा। मंदिर के दरवाजे पर एक–दो बन्दे बारिश से बचने की जुगत में खड़े दिखाई पड़े। मैं भी तेजी से वहीं जाकर खड़ा हो गया। लेकिन यहाँ भी कई लोगों के खड़े होने लायक जगह नहीं थी। उस पर भी जूता तो तीन अंगुल पानी में ही रखना था। मंदिर में बारिश से बचने की जगह तो दिखाई पड़ रही थी लेकिन उसके लिए दरवाजे के उस पार मंदिर का पूरा खुला आँगन पार करके बरामदे में जाना पड़ता और उसके भी पहले जूते–मोजे उतारने पड़ते। मैंने वहीं खड़े रहने में भलाई समझी। तीन–चौथाई तो भीग ही चुका था। अब अधिक मगजमारी करने की कोई जरूरत नहीं थी।

आधे घण्टे में इन्द्रदेव को दया आ गयी। एक घु़मक्कड़ का आधा घण्टा समय भी बहुत महत्वपूर्ण होता है। मैं तेजी से नाहरगढ़ की ओर भागा। बाहरी गेट पर बाइक स्टैण्ड की पर्ची कट गयी। वैसे बाइक कुछ और अन्दर जाकर खड़ी हुई। कुछ ही कदम आगे चलने के बाद पता चला कि रास्ते पर लगभग 2 या 3 इंच पानी प्रवाहित हो रहा है। लाेग किसी तरह अपने जूते बचाने की जुगत में लगे हुए थे। मैं इस तरह की उम्मीद पहले ही छोड़ चुका था इसलिए मुझे जूते बचाने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं हो रही थी। किले के मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही बायीं तरफ टिकट घर है। लोग छतरी ताने टिकट घर के सामने लाइन लगाए खड़े थे। चूँकि मैंने कॉम्बो टिकट ले रखा था तो मुझे यहाँ लाइन लगाने की कोई जरूरत नहीं थी। टिकट घर से थोड़ा सा ही आगे बायीं तरफ एक इमारत दिखी जिसका नाम शीश महल है। पता चला कि इस इमारत में प्रवेश करने के लिए अलग से 500 रूपए का टिकट लेना पड़ेगा। अब कोई भी इस इमारत की ओर मुँह नहीं कर रहा था तो भला मैं क्यों जाने लगा। ऊँचाई पर बने किले पर बरसा पानी,कम ऊँचाई पर बने किले के बाहरी गेट की ओर पूरी मस्ती के साथ बहता चला जा रहा था। पानी में छप–छप करते हुए मैं सीधे किले के मुख्य भवन की ओर आगे बढ़ गया।
यहाँ पहुँचकर एक ऐसा दृश्य दिखा जिससे लगा कि जो होता है अच्छा ही होता है। दाहिनी तरफ,नाहरगढ़ किले के बाहरी भाग में बनी एक बावड़ी दिखायी दे रही थी। अभी थोड़ी देर पहले हुई बारिश का पानी कई धाराओं से होकर इस बावड़ी में गिर रहा था और झरने का सा दृश्य उपस्थित हो रहा था। अगर बारिश नहीं हुई होती तो इस दृश्य से मैं वंचित रह जाता। इस तरह की बावड़ियों को यहाँ टाँका कहा जाता है। यह वर्गाकार टाँका है जिसमें किले के विभिन्न भवनों और अास–पास की पहाड़ियों से बहकर आया हुआ पानी एकत्रित होता है। इस बावड़ी तक पानी को लाने वाली नालियों के रास्ते में जगह–जगह हौदियां बनी हुई हैं जिनमें पानी के साथ बहकर आया हुआ कचरा इकट्ठा हो जाता है और केवल साफ पानी ही मुख्य बावड़ी तक पहुँचता है। उस जमाने की यह बहुत ही अच्छी तकनीक है।
बायीं तरफ किले का मुख्य भवन बना हुआ है। नाहरगढ़ किले का निर्माण महाराज सवाई जयसिंह द्वारा जयपुर शहर की सुरक्षा के लिए सन् 1734 में कराया गया। सवाई जयसिंह (1699-1743) द्वारा किले में कई इमारतें जैसे दीवान–ए–आम,खजाना भवन व सैनिक विश्राम गृह का निर्माण कराया गया। बाद में महाराजा सवाई रामसिंह दि्वतीय (1835-1880) द्वारा हवामंदिर व महाराजा सवाई माधोसिंह दि्वतीय (1880-1922) द्वारा श्री माधवेन्द्र भवन का निर्माण कराया गया। सवाई जयसिंह के समय राज्य का खजाना नाहरगढ़ में ही रखा जाता था और आम आदमी का किले में प्रवेश निषिद्ध था। वैसे आज भी किले के कई भवनों में प्रवेश प्रतिबन्धित है। किले का सबसे प्रमुख दर्शनीय भाग माधवेन्द्र भवन है। अधिकांश भीड़ इस माधवेन्द्र भवन पर ही हमले कर रही थी। माधवेन्द्र भवन में कई छोटे महलनुमा कक्ष बने हुए हैं जो एक गलियारे के माध्यम से जुड़े हुए हैं। इस गलियारे और महलों में आधुनिक समय के अलग–अलग कलाकारों की कलाकृतियां व्यवस्थित ढंग से सजाई गयी हैं। भवन की दूसरी मंजिल पर भी इसी तरह के कक्ष बने हुए हैं लेकिन इनमें से अधिकांश अभी खाली हैं। हो सकता है भविष्य में इनमें भी कुछ कलाकारों की कलाकृतियों को स्थान दे दिया जाय।

दो मंजिलों वाला यह भवन दस भवनों में विभक्त है। इनमें से मुख्य भवन महाराजा के लिए और शेष नौ भवन उनकी रानियों के लिए बनवाए गए थे। राजा का भवन शेष नौ भवनों से एक गलियारे के माध्यम से जुड़ा हुआ है जिसे राजा का गलियारा कहा जाता है। इस गलियारे के माध्यम से राजा किसी भी रानी के भवन में प्रवेश कर सकते थे। प्रत्येक भवन में शयन कक्ष,भण्डार गृह,रसोई,शौचालय तथा मध्य में एक चौक बना हुआ है। शयनकक्ष में सर्दियों के लिए अलाव भी बने हुए हैं। भवन की दीवारों पर भित्ति–चित्रों का सुंदर अंकन किया गया है। माधवेन्द्र भवन के निर्माण में भारतीय एवं पाश्चात्य वास्तुकला का अनूठा सम्मिश्रण किया गया है। माधवेन्द्र भवन के प्रवेश द्वार से प्रवेश करते ही गलियारे में बनी कलाकृतियां दिखती हैं। गलियारे में चार कलाकृतियां बनी हुई हैं। इनके पास ही इन कलाकृतियों के बारे में तथा इन्हें बनाने वाले कलाकारों के बारे में जानकारी दी गयी है। वैसे इस जानकारी से किसी को मतलब नहीं था। सबसे अधिक भीड़ एक ही कलाकृति के पास इकट्ठी हो रही थी और वह भी सेल्फी लेने या फोटो खिंचाने के लिए। यह कलाकृति थी– पत्थर से बनी दो पंखों जैसी आकृति। लाख प्रयास करने के बाद भी मैं इसकी मानवरहित फोटो नहीं ले सका। क्योंकि इसके पास से हटने को कोई तैयार नहीं था।
माधवेन्द्र भवन के सारे कक्षों में टहलने के बाद मैं ऊपरी तल पर पहुँचा। यहाँ से जयपुर शहर का विहंगम दृश्य काफी सुंदर दिखायी पड़ता है। और हाँ,किले के भ्रमण के दौरान सबसे अच्छी बात यह रही कि बारिश ने बाधा नहीं डाली। तो मैंने इन्द्रदेव को बहुत–बहुत धन्यवाद दिया और किले से बाहर बाइक स्टैण्ड की ओर निकल पड़ा जहाँ मेरी किराए की बाइक बेसब्री से मेरा इन्तजार कर रही थी।

नाहरगढ़ किले से निकलकर मैं वापस जयगढ़ की ओर चल पड़ा। लेकिन थोड़ा ही आगे बढ़ा तो सड़क किनारे एक ऐसा स्थान दिखा जहाँ पहाड़ी की कगार पर खड़ा होने पर नीचे की ओर संभवतः कुछ दिख रहा था क्योंकि उधर अक्सर लोगों के आने–जाने के कई निशान दिख रहे थे। तो मैं भी उधर मुड़ गया। पहुँचकर पता चला कि वास्तव में यह एक व्यू प्वाइंट है जहाँ से पहाड़ी के नीचे की घाटी और मानसिंह झील व उसमें बने जल महल का सुंदर नजारा दिखाई पड़ रहा था। मानव और प्रकृति के सम्मिलित निर्माण के दर्शन से मैं अभिभूत हो उठा। अभी कुछ देर पहले हुई बारिश ने प्रकृति को और भी हरा–भरा कर दिया था। मैं वापस लौट कर फिर आगे बढ़ चला। लेकिन कुछ दूर चलने के बाद पहले जैसा ही एक और व्यू प्वाइंट मिला। इस व्यू प्वाइंट के भी दर्शन करने के बाद मैं जयगढ़ पहुँचा।


माधवेन्द्र भवन का एक दृश्य 


माधवेन्द्र भवन का गलियारा






माधवेन्द्र भवन की छत से जयपुर शहर का एक विहंगम दृश्य
माधवेन्द्र भवन की छत का एक नजारा
नाहरगढ़ किले की दीवार और बारिश से प्रफुल्लित हरियाली

गलियारे में बनी पंखों वाली कलाकृति


बाहरी प्रांगण में दो पहियों की गाड़ी पर पेट्रोलिंग करते कर्मी
बावड़ी या टाँका
ये आमेर का नहीं वरन नाहरगढ़ का शीश महल है
नाहरगढ़ से जयगढ़ के रास्ते में दूर से दिखता जल–महल
अगला भाग ः जयगढ़

सम्बन्धित यात्रा विवरण–
1. जयपुर–गुलाबी शहर में
2. आमेर से नाहरगढ़
3. जयगढ़
4. जयपुर की विरासतें–पहला भाग
5. जयपुर की विरासतें–दूसरा भाग
6. भानगढ़–डरना मना हैǃ
7. सरिस्का नेशनल पार्क
8. जयपुर की विरासतें–तीसरा भाग

6 comments:

  1. आपकी मनोरंजक, हास्य परिपूरित शैली में नाहरगढ़ और जयगढ़ यात्रा का विवरण न केवल मनोरंजक है, अपितु जानकारी से भरपूर भी है। मैंने भी 2016 में ये दोनों किले देखे थे परंतु इतने विस्तार से नहीं देख पाया। खास कर आपके विवरण व चित्रों से लग रहा है कि दोनों ही किलों के कुछ भागों में मैंने प्रवेश ही नहीं किया। लिखते रहें।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद जी ब्लॉग पर आने के लिए। ऐसे ही प्रोत्साहन देते रहें,मैं लिखता रहूँगा।

      Delete
  2. रोचक वर्णन राजस्थान के, आपने एक बार फिर राजस्थान देखने की ललक जगा दी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद रत्नेश भाई। राजस्थान वास्तव में बार–बार देखने लायक जगह है।

      Delete
  3. आपका ब्लॉग पढ़ने से घुमक्कड़ी की जानकारी बड़े रोचक तरीके से मिलती है। और बोनस में हास्य का पुट । ऐसे ही लिखते रहिये और जानकारी बाटते रहिये। घुमक्कड़ी जिंदाबाद

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद भाई। आप प्रोत्साहन देते रहिए,हम लिखते रहेंगे। घुमक्कड़ी जिन्दाबाद।

      Delete

Top